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कविता

ढँक लो और मुझे तुम

राजेंद्र प्रसाद सिंह


ढँक लो और मुझे तुम,
अपनी फूलों सी पलकों से, ढँक लो ।
अनदिख आँसू में दर्पण का,
रंगों की परिभाषा,
मोह अकिंचन मणि-स्वप्नों का
मैं गंधों की भाषा,
ढँक लो और मुझे तुम
अपने अंकुरवत अधरों से ढँक लो ।

रख लो और मुझे तुम,
अपने सीपी-से अंतर में रख लो ।
अनबुझ प्यास अथिर पारद की,
मैं ही मृगजल लोभन,
कदली-वन; कपूर का पहरू
मेघों का मधु शोभन ।
रख लो और मुझे तुम
अपने अनफूटे निर्झर में, रख लो ।

सह लो और मुझे तुम,
अपने पावक-से प्राणों पर सह लो ।
मैं हो गया रुई का सागर,
कड़वा धुआँ रसों का,
कुहरे का मक्खन अनजाना,
गीत अचेत नसों का,
सह लो और मुझे तुम,
अपने मंगल वरदानों पर सह लो ।"

 


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